श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 18: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वृन्दावन में भ्रमण  »  श्लोक 156
 
 
श्लोक  2.18.156 
বাহ্য বিকার নাহি, প্রেমাবিষ্ট মন
ভট্টাচার্য কহে, — চল, যাই মহাবন
बाह्य विकार नाहि, प्रेमाविष्ट मन ।
भट्टाचार्य कहे , - चल, याइ महावन ॥156॥
 
अनुवाद
यद्यपि महाप्रभु के शरीर पर बाहर से तो लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे, किंतु उनका अंतरमन प्रेम से सम्मोहित था।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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