श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 2: मध्य लीला » अध्याय 14: वृन्दावन लीलाओं का सम्पादन » श्लोक 198 |
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| | श्लोक 2.14.198  | কৃষ্ণ-বাঞ্ছা পূর্ণ হয, করে পাণি-রোধ
অন্তরে আনন্দ রাধা, বাহিরে বাম্য-ক্রোধ | कृष्ण - वाञ्छा पूर्ण हय, करे पाणि - रोध ।
अन्तरे आनन्द राधा, बाहिरे वाम्य - क्रोध ॥198॥ | | अनुवाद | “यद्यपि श्रीमती राधारानी अपने हाथ से श्रीकृष्ण को रोक रही थीं, परन्तु उनके मन में यह विचार था कि श्रीकृष्ण को अपनी मनोकामना पूरी करने देना चाहिए। इस प्रकार वे भीतर से बहुत खुश थीं, हालाँकि बाहर से वे विरोध और क्रोध दिखा रही थीं। | | |
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