श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 13: रथयात्रा के समय महाप्रभु का भावमय नृत्य  »  श्लोक 157
 
 
श्लोक  2.13.157 
সেই শত্রু-গণ হৈতে, ব্রজ-জন রাখিতে,
রহি রাজ্যে উদাসীন হঞা
যেবা স্ত্রী-পুত্র-ধনে, করি রাজ্য আবরণে,
যদু-গণের সন্তোষ লাগিযা
सेइ शत्रु - गण हैते, व्रज - जन राखिते
रहि राज्ये उदासीन हजा ।
येबा स्त्री - पुत्र - धने, करि राज्य आवरणे
यदु - गणेर सन्तोष लागिया ॥157॥
 
अनुवाद
"मैं वृन्दावन के निवासियों को अपने शत्रुओं के हमलों से बचाना चाहता हूँ। इसीलिए मैं अपने राज्य में रहता हूँ। नहीं तो अपने राजसी पद के प्रति मेरा कोई लगाव नहीं है। मैं राज्य में जो भी पत्नियाँ, पुत्र और धन रखता हूँ, वे सभी यदुओं को प्रसन्न करने के लिए ही हैं।"
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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