श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 2: मध्य लीला » अध्याय 13: रथयात्रा के समय महाप्रभु का भावमय नृत्य » श्लोक 137 |
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| | श्लोक 2.13.137  | অন্যের হৃদয — মন, মোর মন — বৃন্দাবন,
‘মনে’ ‘বনে’ এক করি’ জানি
তাহাঙ্ তোমার পদ-দ্বয, করাহ যদি উদয,
তবে তোমার পূর্ণ কৃপা মানি | अन्येर हृदय - मन, मोर मन - वृन्दावन
‘मने ‘वने’ एक करि’ जानि ।
ताहाँ तोमार पद - द्वय, कराह यदि उदय
तबे तोमार पूर्ण कृपा मानि ॥137॥ | | अनुवाद | श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "अधिकांश लोगों के मन और हृदय एक होते हैं, लेकिन मेरा मन तो हमेशा वृन्दावन में ही लगा रहता है, इसलिए मैं अपने मन और वृन्दावन को एक ही मानती हूँ। मेरा मन पहले से ही वृन्दावन है और चूँकि आपको वृन्दावन बहुत पसंद है, तो कृपा करके आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे क्या? मैं इसे आपकी पूरी कृपा मानूँगी।" | | |
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