नित्यानन्द प्रभु ने तुरन्त ही अद्वैत आचार्य का खण्डन करते हुए कहा, "आप निर्विशेष ब्रह्म को सर्वोच्च मानते हैं और निर्गुण ब्रह्म के भक्त हो, किन्तु मेरे लिए यह मानना अस्वीकार्य है। इस निर्गुणवाद के कारण आप भक्ति में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। शुद्ध भक्ति निष्काम होती है, किन्तु निर्गुणवाद के सिद्धान्त के अनुसार, आप भगवान की भक्ति स्वयं को मुक्त करने के उद्देश्य से करते हैं। इससे भक्ति में शुद्धता नहीं आ सकती।" |