हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महा - भुज ।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥71॥
अनुवाद
"हे मेरे स्वामी, हे मेरे पति, हे मेरे अतिप्रिय! हे पराक्रमी भुजाओं वाले! तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो? हे मित्र, अपनों को दर्शन दो, जो तुम्हारे बिना अत्यंत दुखी हैं।"