श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 6: श्रीअद्वैत आचार्य की महिमाएँ अध्याय सात  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  1.6.5 
অদ্বৈতṁ হরিণাদ্বৈতাদ্
আচার্যṁ ভক্তি-শṁসনাত্
ভক্তাবতারম্ ঈশṁ তম্
অদ্বৈতাচার্যম্ আশ্রযে
अद्वैतं हरिणाद्वैतादाचा भक्ति - शंसनात् ।
भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये ॥5॥
 
अनुवाद
वह भगवान् हरि से अभिन्न होते हैं, इस अर्थ से वे अद्वैत कहलाते हैं और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार करने के कारण वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् हैं और भगवान् के भक्त के रूप में अवतार हैं, अतः उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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