श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 97
 
 
श्लोक  1.4.97 
মৃগমদ, তার গন্ধ — যৈছে অবিচ্ছেদ
অগ্নি, জ্বালাতে — যৈছে কভু নাহি ভেদ
मृगमद, तार गन्ध - यैछे अविच्छेद ।
अग्नि, ज्वालाते - यैछे कभु नाहि भेद ॥97॥
 
अनुवाद
ज़रूर, वे वस्तुतः अभिन्न हैं, जैसे कि कस्तूरी और उसकी गंध एक-दूसरे से अविभाज्य हैं या जैसे कि आग और उसकी ऊष्मा में कोई भेद नहीं है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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