श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  1.4.55 
রাধা কৃষ্ণ-প্রণয-বিকৃতির্ হ্লাদিনী শক্তির্ অস্মাদ্
একাত্মানাব্ অপি ভুবি পুরা দেহ-ভেদṁ গতৌ তৌ
চৈতন্যাখ্যṁ প্রকটম্ অধুনা তদ্-দ্বযṁ চৈক্যম্ আপ্তṁ
রাধা-ভাব-দ্যুতি-সুবলিতṁ নৌমি কৃষ্ণ-স্বরূপম্
राधा कृष्ण - प्रणय - विकृतिह्णदिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तदद्वयं चैक्यमाप्तं राधा - भाव - द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥55॥
 
अनुवाद
श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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