श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  1.4.51 
সুরেশানাṁ দুর্গṁ গতির্ অতিশযেনোপনিষদাṁ
মুনীনাṁ সর্ব-স্বṁ প্রণত-পটলীনাṁ মধুরিমা
বিনির্যাসঃ প্রেম্ণো নিখিল-পশু-পালাম্বুজ-দৃশাṁ
স চৈতন্যঃ কিṁ মে পুনর্ অপি দৃশোর্ যাস্যতি পদম্
सुरेशानां दुर्गं गतिरतिशयेनोपनिषदां मुनीनां सर्व - स्वं प्रणत - पटलीनां मधुरिमा ।
विनिर्मासः प्रेम्णो निखिल - पशु - पालाम्बुज - दृशां स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥51॥
 
अनुवाद
भगवान चैतन्य देवताओं के संरक्षक, उपनिषदों के लक्ष्य, सभी बुद्धिमानों की समग्रता, अपने भक्तों के लिए सुंदर आश्रय और कमल-आंखों वाली गोपियों के प्रेम का सार हैं। क्या मैं फिर से उनके दर्शन कर पाऊंगा?
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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