श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 275
 
 
श्लोक  1.4.275 
অপারṁ কস্যাপি প্রণযি-জন-বৃন্দস্য কুতুকী
রস-স্তোমṁ হৃত্বা মধুরম্ উপভোক্তুṁ কম্ অপি যঃ
রুচṁ স্বাম্ আবব্রে দ্যুতিম্ ইহ তদীযাṁ প্রকটযন্
স দেবশ্ চৈতন্যাকৃতির্ অতিতরাṁ নঃ কৃপযতু
अपारं कस्यापि प्रणयि - जन - वृन्दस्य कुतुकी रस - स्तोमं हृत्वा मधुरमुपभोक्तुं कमपि यः ।
रुचं स्वामावत्रे द्युतिमिह तदीयां प्रकटयन् स देवश्चैतन्याकृतिरतितरां नः कृपयतु ॥275॥
 
अनुवाद
"भगवान कृष्ण अपनी प्रेमिकाओं के समूह में से एक (श्री राधा) के अनंत प्रेम के अमृत रस का स्वाद लेना चाहते थे; इसलिए उन्होंने भगवान चैतन्य महाप्रभु का रूप धारण किया। उन्होंने राधा के तेजोमय गौरवर्ण से अपने श्यामवर्ण को छिपाकर उस प्रेम का आनंद लिया। वे भगवान चैतन्य महाप्रभु हम सब पर अपनी कृपा बरसाएँ।"
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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