श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 153
 
 
श्लोक  1.4.153 
গোপ্যশ্ চ কৃষ্ণম্ উপলভ্য চিরাদ্ অভীষ্টṁ
যত্-প্রেক্ষণে দৃশিষু পক্ষ্ম-কৃতṁ শপন্তি
দৃগ্ভির্ হৃদী-কৃতম্ অলṁ পরিরভ্য সর্বাস্
তদ্-ভাবম্ আপুর্ অপি নিত্য-যুজাṁ দুরাপম্
गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं यत्प्रेक्ष णे दृशिषु पक्ष्म - कृतं शपन्ति ।
दृग्भिहंदी - कृतमलं परिरभ्य सर्वास् तद्भावमापुरपि नित्य - ग्रुजां दुरापम् ॥153॥
 
अनुवाद
कुरुक्षेत्र में दीर्घकालिक विछोह के बाद गोपियों ने अपने प्रिय कृष्ण को देखा। उन्होंने अपनी आँखों के माध्यम से उन्हें अपने हृदय में पाया और उनका आलिंगन किया। उन्हें इतना प्रबल आनंद हुआ कि सिद्ध योगियों को भी ऐसा आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। गोपियाँ स्रष्टा को यह कहकर कोसने लगीं कि उसने पलकें क्यों बनाईं, जो उनके दर्शन में बाधक बन रही हैं।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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