श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 146
 
 
श्लोक  1.4.146 
অপরিকলিত-পূর্বঃ কশ্ চমত্কার-কারী
স্ফুরতি মম গরীযান্ এষ মাধুর্য-পূরঃ
অযম্ অহম্ অপি হন্ত প্রেক্ষ্য যṁ লুব্ধ-চেতাঃ
সরভসম্ উপভোক্তুṁ কামযে রাধিকেব
अपरिकलित - पूर्वः कश्चमत्कार - कारी स्फुरति मम गरीयानेष माधुर्य - पूरः ।
अयमहमपि ह न्त प्रेक्ष्य ग्यं लुब्ध - चेताः सरभसमुपभोक्तुं कामये राधिकेव ॥146॥
 
अनुवाद
"कौन है वो, जो मुझसे भी ज़्यादा मिठास बिखेर रहा है, ऐसा जिसका पहले कभी अनुभव न हुआ और जो सबको हैरान कर रहा है? अफसोस, मैं ख़ुद इस ख़ूबसूरती को देखकर कायल हो गया हूँ और श्रीमती राधारानी की तरह मैं भी इसका आनंद लेना चाहता हूँ।"
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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