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श्लोक 1.4.131  |
বিভুর্ অপি কলযন্ সদাভিবৃদ্ধিṁ
গুরুর্ অপি গৌরব-চর্যযা বিহীনঃ
মুহুর্ উপচিত-বক্রিমাপি শুদ্ধো
জযতি মুর-দ্বিষি রাধিকানুরাগঃ |
विभुरपि कलयन्सदाभिवृद्धि गुरुरपि गौरव - चर्यया विहीनः ।
मुहुरुपचित - वक्रिमापि शुद्धो जयति मुर - द्विषि राधिकानुरागः ॥131॥ |
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अनुवाद |
राधा-कृष्ण के प्रेम की जय हो, जो मुर राक्षस के शत्रु हैं! यह प्रेम सर्वव्यापी होते हुए भी प्रतिपल बढ़ता रहता है। यह प्रेम अत्यंत महत्वपूर्ण होते हुए भी अभिमान से रहित है। यह प्रेम अत्यंत शुद्ध होते हुए भी सदैव कपट से घिरा रहता है। |
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