श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 1: आदि लीला  »  अध्याय 4: श्री चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के गुह्य कारण  »  श्लोक 127
 
 
श्लोक  1.4.127 
আমি যৈছে পরস্পর বিরুদ্ধ-ধর্মাশ্রয
রাধা-প্রেম তৈছে সদা বিরুদ্ধ-ধর্ম-ময
आमि यैछे परस्पर विरुद्ध - धर्माश्रय ।
राधा - प्रेम तैछे सदा विरुद्ध - धर्म - मय ॥127॥
 
अनुवाद
जैसे मैं सभी पारस्परिक रूप से परस्पर विरोधी विशेषताओं का निवास स्थान हूँ, ठीक वैसे ही राधा का प्रेम भी हमेशा समान विरोधाभासों से भरा रहता है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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