श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 1: आदि लीला » अध्याय 2: पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु » श्लोक 87 |
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| | श्लोक 1.2.87  | বিরুদ্ধার্থ কহ তুমি, কহিতে কর রোষ
তোমার অর্থে অবিমৃষ্ট-বিধেযাṁশ-দোষ | विरुद्धार्थ कह तुमि, कहिते कर रोष ।
तोमार अर्थे अविमृष्ट - विधेयांश - दोष ॥87॥ | | अनुवाद | “तुम परस्पर विरोधी बातें करते हो और जब इसे तुम्हें दिखाया जाता है, तो तुम गुस्सा हो जाते हो। तुमारी व्याख्या में विषय और क्रिया का गड़बड़ होना एक खामी है। यह एक ऐसा समायोजन है जिस पर विचार नहीं किया गया है। | | |
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